बुधवार, 1 जून 2011

कभी आओ फुर्सत से तो मेरी इक ग़ज़ल से मिलना




जब हम तनहा होते हैं और तेरी यादों में  खोये होते है
दरवाज़े पर आहट होती है हम दौड़ कर दरवाज़ा खोलते हैं 
तुम्हे  आया पा कर मायूस हो जाते हैं ,  
दिल  को समझाते हैं, तेरे आने की उम्मीद पे उसे बहलाते हैं 
जब हम तनहा होते हैं  और तेरी यादों में खोये होते हैं  

तेरे साथ गुज़ारे हुए लम्हे हमें सुकून देते हैं
जब हम तनहा होते हैं और तेरी यादों में खोये होते है

वक़्त का कुछ भी होश नही होता है
जाने कब शाम होती हैं
जाने कब रात गुज़र जाती है
ये रुत भी जानती है, और चाँद भी देखा करता है
की हम अब  अपने साये से भी हम घबराते हैं 
शब् के सन्नाटे में अपनी धडकनों की सदा आती हैं
नीद से बोझल आँखें थकन से चूर हो सोने के लिए उकसाती हैं
हम तेरी यादों को दामन में समेटे सो जाते हैं
सुबह जब नींद खुलती हैं तो फिर वही बात होती है
जब हम तनहा होते हैं और तेरी यादों में खोये होते है

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